घनेरी छांव हैं पापा

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घनेरी छांव हैं पापा

हैलो फ्रेंड्स, आज हम लेकर आए हैं फादर्स डे को लेकर "पर्वत से अडिग" और "गहरी नींद में" कविता, जिसको सुरेन्द्र कौर खंडूजा और पुरु मालव ने लिखी है, और यह आपको काफी पसंद आएगी 

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घनेरी छांव हैं पापा

पर्वत से अडिग
सुरेन्द्र कौर खंडूजा

बरगद जैसे पेड़ से फैले
घर के चारों ओर हैं पापा
दुनियां दग्ध मरूस्थल
घनी घनेरी छांव हैं पापा

बचपन की नटखट
आपा-धापी में
कभी घोड़ा
कभी बॉल हैं पापा
सबकी जिम्मेदारी ओढ़े
घर-बाजार, दफ्तर
चारों ओर घूम रहे
जैसे घूमे लट्टू पापा
जीवन-रण में हम जूझे
कभी आगे कभी पीछे
कभी तो ढाल
कभी तलवार हैं पापा
कभी-कभी ज्वालामुखी
और कभी है मीठा झरना
कभी पर्वत से अडिग
कभी गंगा की धार हैं पापा
कभी न डोले, कभी न फिसले
जीवन-पथ पर हमें सुरक्षित कर लेते
मोती जैसे सीप में, पापा
जीवन-समर में न झुकते न थकते पापा
समय से पहले मैंने देखे 
बूढ़े होते जाते पापा
दीदी की शादी की रस्में
खुशी खुशी निभाते पापा
पर विदा की बेला में
छुप कर रोते देखे पापा
बेटा, चाचा, ताऊ, भैया
जैसे रिश्तों की माला में
कभी कठोर कभी कोमल बन
क्षण-प्रतिक्षण नए हैं पापा
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गहरी नींद में
पुरु मालव

दिन निकलने से पहले ही
उठ जाया करते थे पिता
एक आदत की तरह
एक नियम की तरह
ये भी उनकी दिनचर्या का हिस्सा था
या एक संशय या एक आशंका
कि उनके जल्दी न उठने से
रुके रहेंगे घर के काम
या कोई परम्परा थी या कि संस्कार
जो बाध्य करते थे उन्हें
जल्दी उठने के लिए
या एक जिम्मेदारी थी
घर परिवार की
कि यह काम
बस उन्हें ही करना है
जबकि जल्दी उठकर
उन्हें कुछ खास नहीं करना होता
सिवाय सबको आवाजें देकर उठाने के
और फिर सबके उठने तक
बरामदे में टहलते रहते
ये क्रम सालों-साल चलता रहा
फिर एक दिन पिता
गहरी नींद में सो गए
चाह कर भी कोई
उन्हें जगा नहीं पाया
या हिम्मत नहीं पड़ी
किसी की उन्हें जगाने की।

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