सहयात्री

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सहयात्री

हैलो, आज हम आपके लिए लेकर आए हैं एक बहुत ही खूबसूरत कविता सहयात्री। जिसको वीरेंद्र नारायण झा ने लिखा है। इन्होंने कविता के मध्यम से किसी भी प्रकार की यात्रा के दौरान या जीवन यात्रा में हमारे साथ रहने वाले या मिलने वाले लोगों के बारे में बताया गया है, जो विभिन्न पड़ाव पर अलग अलग भूमिका निभाते हैं। जिनका हमारे से किसी प्रकार का कोई सबंध नहीं होता है फिर भी उस सफर को काटने के लिए एक दूसरे का साथ निभाने को तैयार हो जाते हैं। 

सहयात्री

वीरेन्द्र नारायण झा

कौन किस जाति-मजहब का
किस नाम और देश-भेष का
जरूरत नहीं जानने की
कायम है रिश्ता मगर
उनके बीच
प्यार और अपनापन का
कुछ लम्हों के लिए ही सही
रिश्ता है सहयात्री होने का।

रिश्तों की उम्र 
जरूरी नहीं कि
हो रिश्ता ताउम्र का
कुछ वक्त ही सही
जी लें उसे
उम्र भर के लिए।

रिश्ते की बुनियाद
टिका हो जरूरत पर जो रिश्ता
मजबूत होती उसकी बुनियाद
न जरूरत कभी खत्म होती
न ही बुनियाद कमजोर पड़ती।

कड़ी
चलने की जगह से
रेल जोड़ देती
पहुंचना है हमें जहां
फलसफा जिंदगी का यही
दो ठिकानों के बीच
बन जाती कड़ी।

यात्रा
होती नहीं कभी खत्म
इंसानों की यात्रा
शुरू हो जाती
एक के बाद दूसरी
और चलती रहती अनवरत
जब तक जारी रहती
सांसों की यात्रा।

हकीकत
देखे हमने तुम्हारे शहर
दिन के उजाले में
रोशनी में नहाए हुए शहर
रातों में ही अच्छे लगते हैं।

रास्ते घर के
नीचे से ऊपर तक
यहां घर ही घर हैं
सीढ़ियां एक हैं
मगर रास्ते सबके
अलग-अलग हैं।

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