यह कविता छायावादी एवं रहस्यवादी काव्यधारा की प्रतिनिधि कवयित्री महादेवी वर्मा द्वारा रचित है। जिसका शीर्षक मैं नीर भरी दुख की बदली है। जिसमें कवयित्री ने एक ओर वर्षा जल से भरी बदली का परिचय दे रही है, वहीं दूसरी ओर कवयित्री स्वयं अपने वेदनापूर्ण जीवन की ओर इशारा कर रही हैं।
महादेवी वर्मा
1. मैं नीर भरी दुख की बदली
1. मैं नीर भरी दुख की बदली
मैं नीर भरी दुख की बदली।
स्पंदन में चिर निस्पंदन बसा,
क्रंदन में आहत विश्व हंसा,
नयनों में दीपक के जलते,
पलकों में निर्झरिणी मचली!
मेरा पग-पग संगीत भरा,
श्वासों में स्वप्न-पराग झरा,
नभ के नव रंग, बुनते दुकूल,
छाया में मलय-बयार पली!
मैं क्षितिज भृकुटी पर किस घिर धूमिल,
चिंता का भार बनी अविरल,
रज-कण पर जल-कण हो बरसी,
नवजीवन-अंकुर बन निकली!
पथ को न मलिन करता आना,
पद-चिह्न न देते जाता जाना,
सुधि मेरे आगम की जग में,
सुख की सिरहन को अंत खिली!
विस्तृत नभ का कोई कोना,
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय यही, इतिहास यही,
उमड़ी कल थी मिट आज चली!
क्रंदन में आहत विश्व हंसा,
नयनों में दीपक के जलते,
पलकों में निर्झरिणी मचली!
मेरा पग-पग संगीत भरा,
श्वासों में स्वप्न-पराग झरा,
नभ के नव रंग, बुनते दुकूल,
छाया में मलय-बयार पली!
मैं क्षितिज भृकुटी पर किस घिर धूमिल,
चिंता का भार बनी अविरल,
रज-कण पर जल-कण हो बरसी,
नवजीवन-अंकुर बन निकली!
पथ को न मलिन करता आना,
पद-चिह्न न देते जाता जाना,
सुधि मेरे आगम की जग में,
सुख की सिरहन को अंत खिली!
विस्तृत नभ का कोई कोना,
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय यही, इतिहास यही,
उमड़ी कल थी मिट आज चली!
2. आंसू
इस कझा कलित हृदय में
अब विकल रागिनी बजती
क्यों हो हाहाकार स्वरों में
वेद असीम गरजती?
मानस सागर के तट पर
क्यों लाल लहर की घातें
कल कल ध्वनि से कहती
कुछ विस्मृत बीती बातें?
आती है शून्य क्षितिज से
क्यों लौट प्रतिध्वनि मेरी
टकराती बिलखाती-सी
पगली-सी देती फेरी
क्यों व्यथित व्योमगंगा-सी
छिटका कर दोनों छोरें
चेतना तरंगिणी मेरी
लेती है मृदुल हिलोरे?
बस गई एक बस्ती है
स्मृतियों की इसी हृदय में
नक्षत्र लोक फैला है
जैसे इस नील निलय में।
अब विकल रागिनी बजती
क्यों हो हाहाकार स्वरों में
वेद असीम गरजती?
मानस सागर के तट पर
क्यों लाल लहर की घातें
कल कल ध्वनि से कहती
कुछ विस्मृत बीती बातें?
आती है शून्य क्षितिज से
क्यों लौट प्रतिध्वनि मेरी
टकराती बिलखाती-सी
पगली-सी देती फेरी
क्यों व्यथित व्योमगंगा-सी
छिटका कर दोनों छोरें
चेतना तरंगिणी मेरी
लेती है मृदुल हिलोरे?
बस गई एक बस्ती है
स्मृतियों की इसी हृदय में
नक्षत्र लोक फैला है
जैसे इस नील निलय में।
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