हैलो दोस्तों, आज हम आपके लिए लेकर आए है हम सभी जीवन पर आधारित एक बहुत सुन्दर कविता। जो आज के भागदौड़ भरी जिंदगी को चरितार्थ करती है और साथ यह भी बताती है कि हमने इस भागदौड़ भरी जीवन के चक्र कितना कुछ पीछे छोड़ दिया है, जिसको अब कभी नहीं पाया जा सकता है।
चाहत में
सुदर्शन मोरीजा
पता नहीं क्यों?
दौर थमता नहीं
जीवन है कि रुकता नहीं
कुछ विश्राम मिले
चिंतन तो हो
क्या खो दिया
क्या पा लिया इस जीवन में?
कहीं व्यर्थ ही दौड़े तो नहीं?
जीवन मैराथन में
कुछ भूले तो नहीं
खोकर पाना पाकर खोना
दस्तूर बदस्तूर जारी है।
चंचल मन की अभिलाषा
रीत गए बीत गए
शून्य शिखर का मोल भए।
पढ़ना ही जीवन था पर
जीवन को ही पढ़ पाए।
तेज दौड़ की चाहत में
धीमे चलाना ही भूल गए।
रिश्ते नाते कुटुम्ब कबीला
जीवन डोर के धागे समझे।
लेकिन पता नहीं कब खो गए
इनमे सही मायने जीवन के।
पेट भले ही छोटा था
पर मन मोटे में लगे रहे।
सब कुछ पाने की चाहत में
खुद को खो दिए जीवन में।
ढूंढा बहुत पर मिली नहीं
बीत गई जीवन की फाली।
अमीबा
डॉ. संतोष पटेल
अमीबा!
तू कहां नहीं पाया जाता
नदी, तालाब, पोखर में
मीठे जल के झील में l
और खोखर में
पानी के गड्ढे में और खाई में
गीली मिट्टी और
गीली हरी काई में।
अमीबा!
तू जन्मजात है परजीवी
आत्मकेंद्रित, महीन
आत्मजीवी
संवेदनहीन, हृदयहीन
और रंगहीन
जिस रंग में बदलना चाहते हो
ढल ही जाते हो
क्या दाहिना, क्या बायां
मिलते अपना निवाला
सीधा निगल जाते हो।
अमीबा!
साबित हो गया है कि
ऊर्ध्व गमन में तुम हो माहिर
खेल करते हो जैसे हो
कोई साहिर
रोगकारी और विकारी
भरी है तुझमें
केवल मक्कारी
इतनी बेशर्मी के बावजूद
अपने को बना रखा है देवता।
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