हैलो फ्रेंड्स, आपका हमारे ब्लॉक में एकबार फिर से स्वागत है, आज हम आपके लिए लेकर आए हैं पर्यवारण दिवस के मौके पर उससे जुड़ी एक कविता, जिसको गोविन्द सिंह राव ने लिखा है। जिसमें उन्होंने एक पेड़ की व्यथा को व्यक्त किया है। हमें उम्मीद है कि आपको यह पसंद आएगी।
काश! मैं पेड़ होता
गोविन्द सिंह राव
काश!
मैं पेड़ होता।
विशाल शाखाएं,
पल्लवित टहनियां,
सुरभित पुष्प,
कोमल टहनियों पर फुदकते
अनगिनत पक्षी।
भिनभिनाते कीट पतंगे,
मधुर स्वर में गाती कोयल
जैसे बुला रही हो बरखा को।
और मैं उल्लासित हो कर,
बुलाता हूं जाते हुए बटोही को,
कि आ और बैठ मेरी
शीतल छांव में,
आराम कर,
मिटा अपनी क्षुधा
मेरे मीठे फलों से।
दूर कर अपनी थकान
यह सब कहता।
काश!
मैं पेड़ होता।
बटोही आता
मिटाता अपनी क्षुधा
पर उसकी सुधा कैसे मिटती?
मैं नहीं जानता
क्योंकि मैं तो भोला था
सबको देना मेरा स्वभाव था,
आज भी वह कुछ
लेने ही आया था।
साथ में कल्हाड़ी लाया था।
मैं निर्लिप्त भाव से खड़ा था।
काश कुछ बोल पाता।
फिर भी कहता हूं कि,
काश! मैं पेड़ होता।
मन का मौसम
डॉ. वंदना मिश्र मोहिनी
कितना मुश्किल है,
मन के मौसम को,
अपनी मौज में रखना
कितना मुश्किल है
सहज बने रहना,
हर पल, विपल में
स्थितप्रज्ञ होना।
सत्य को अपने
हृदय में सहेज लेना
कितना मुश्किल है,
शब्दों से दर्द
को उकेरना
कितना मुश्किल है,
रिश्तों के रिसाव को
तलहटी में बैठाना।
कितना मुश्किल है
मन के एकाकीपन को
पिंजरे में रखना,
और मुस्कुराते रहना।
कितना मुश्किल है,
हृदय की पटरी से
छंद, कविता, कहानी में
अपनी व्यथा को कहना।
कितना मुश्किल...?
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