गण और तंत्र

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गण और तंत्र

हैलो फ्रेंड्स, आज हम आपके लिए लेकर आए है गणतन्त्र दिवस के मौके पर गण और तंत्र कविता। जिसको लिखा है सुरेन्द्र कौर खन्डूजा ने। 
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गण और तंत्र 
सुरेन्द्र कौर खन्डूजा 

खामोशी जुर्म है, बरसों बंद जबां
अब खोलो 
कुछ तो बोलो 
लब अपने खोलो 
गण को तंत्र से तो जोड़ो 
भारत माता की जय बोलो 

गण के मन में जल रही आग 
तंत्र खेलता नित नए फाग 
गांधारी सी बंद आंखें खोलो 

गण बन चुका कहार है अब 
तंत्र उसी पर सवार है अब 
संगठित हो संघर्ष करो 
गुम हो गई शक्ति खोजो
धर्म, जाति, भाषा की नफरत 
पांच वर्षों का फरेब है सब 
नींद से जागो आंखें खोला 
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हाथों में गीता सीने में कुरआन 
जो मेल बढ़ाए वही 
धर्म- ईमान
मंदिर, मस्जिद,
शिवाले भी खोलो 

अखबार बिछा फुटपाथ पर सोया 
हिंद 
धोता अपने कन्धे पर 
अपनी सलीब 
महलों के मंजर देखो तोलो 

वोटर का किरदार 
बौना हो गया 
सत्ताधीशों के हाथ का खिलौना 
हो गया 
धनतंत्र का मकड़जाल तो तोड़ो 
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श्वेत बगलुओं के विवाद 
प्रायोजित 
उनके हर संवाद प्रायोजित 
वर्षों से बंद कण्ठ 
अपने खोलो 

किस दिन अंधा 
बन देगी उन्हें 
जिन्होंने घर में कैद 
कर ली है रोशनी 
जुगनुओं की ताकत 
कम मत तोलो 
भारत माता की जय बोलो। 


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