चन्द दोहे
सागर पानी पी गया, नदियाँ हुई उदास
हाय राम हम लुट गई, रत्नाकरे के पास।
अंतरित अनावृत करें, अंतस खूब तलाश
अछल हृदय तब जीतिये, लोगों का विश्वास।
पखवाड़े भर जश्न है फ़िर लम्बा बनवास
भारत में अब तक यही, हिन्दी का इतिहास।
पत्ते जब बूढ़े हुए, चली वृक्ष ने चाल
मौसम पतझड़ देखकर, घर से दिया निकाल।
लाश सामने देखकर, यही सोचे श्मशान
कफ़न ओढ़कर क्यों लगें, सब बंदे इंसान?
खेतों में उगती कभी, फसलें गेहं धान
उर्वर माटी की बढ़ी, अब उग रहें मकान!
जन्मे किस नक्षत्र में, नारी, दलित, किसान
शोषण इनका नित्य हो, कहें पर प्रभु समान!
क्यों होना भयभीत रे, दुर्दिन कर के याद,
आना तय है भोर का, स्याह रात के बाद।
जीवन में जितने मिले, संत औलिया पीर
बडी सुगमता से सबने, बात कही गंभीर।
-ओम प्रकाश नौटियाल
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