कातर मन की प्रार्थना
कर्नल प्रवीण त्रिपाठी
त्रस्त है यह जगत अब बचाओ प्रभो।
घोर संकट धरा का मिटाओ प्रभो।
गंगा को शीश धारण किया जिस तरह।
प्राण की वायु सबको दिलाओ प्रभो।
टूटते पर्ण से लोग नित झर रहे।
श्याम ढाढस सभी को बंधाओ प्रभो।
शत्रु दिखता नहीं वार घातक करे।
हरि सुदर्शन उठा जग बचाओ प्रभो।
जीव सारे रचे सृष्टि में ब्रह्म ने।
मुक्ति इस वायरस से दिलाओ प्रभो।
आज विपदा बड़ी स्वार्थ ऊपर हुआ।
मानवी भावना अब जगाओ प्रभो।
जान पर खेलकर जो चिकित्सा करें।
हौसला आज उनका बढ़ाओ प्रभो।
अब न हो साधनों की कहीं पर कमी।
आप सामर्थ्य ऐसा जगाओ प्रभो।
घोर कलयुग दिखाए दुखद रूप है।
अन्त कर रोग का खुशियां दिलाओ प्रभो।
ग़ज़ल
राम नारायण मीणा हलधर
भयानक रात में जलती चिताओं का उजाला है,
मुहल्लों में रुदन है और घर-घर में अंधेरा है।
जरा-सी छींक भी आए तो घर-भर कांप उठता है,
किसी का खांसना भी आजकल अपराध जैसा है।
अगर वह लौट कर आ जाए जिंदा आईसीयू से,
तो उससे पूछना तन्हाई कितनी जानलेवा है।
हमारे चारसू जो भीड़ है, बस है खुशी में ही,
यहां पे आंसुओं में आदमी बेहद अकेला है।
उन्हें मैं मिल नहीं पाया न उनसे बात हो पाई,
नहीं है चार कन्धे भी उन्हें कैसी विवशता है।
मैं अपने जिस्म में कीलें चुभा के रोज देखूं हूं,
मैं जिंदा हूं या मेरी धड़कने मेरा भरम-सा है।
कभी मन्दिर बनाते हो, कभी मस्जिद बनाते हो,
दावाखाना अभी भी गांवों में इक खण्डहर-सा है।
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