हम कठपुतली हैं

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हम कठपुतली हैं

हैलो फ्रेंड्स, एक बार फिर आपका हमारे ब्लॉग में स्वागत है, आज हम लेकर आए है राजेंद्र उपाध्याय की कविता कठपुतली। जिसमें कवि ने हमारी पराधीनता की प्रवृत्ति का उल्लेख किया है, जिसमें बताया गया है कि हम कितने स्वाधीन है, कि अपने आप को कितनी आसानी से दूसरे के हाथों सौप कर खुश हो जाते हैं...


हम कठपुतली हैं
पर हम नहीं जानते कि हम कठपुतली हैं
हर आदमी एक कठपुतली है
हर औरत एक कठपुतली है
हम जानते हैं कि
हम कठपुतली हैं
फिर भी हम कठपुतली बने रहते हैं
क्योंकि कठपुतली बने रहने में सुविधा है
किसी दूसरे के हाथों में अपने दौर देकर हम खुश रहते हैं
क्योंकि फिर हमें अपनी डगर नहीं बनानी पड़ती

हम कठपुतली हैं
और हमारे पास आए हर आदमी को हम कठपुतली बनाना चाहते हैं
वह भी इसी में अपनी भलाई मानता है
हर आदमी
एक दूसरे के हाथों में
अपनी डोर देकर आजाद है
आजादी के नारे लगाने वालों को देखो-
उनकी डोर भी उनके हाथ में नहीं है।

कोई और कहीं से हमें चला रहा है
कोई और कहीं से हमें जो कह रहा है
वह हम कह-कर रहे हैं
ऐसे हम आजाद हैं।
एक कठपुतली
हजारों कठपुतली तैयार करती है।
कठपुतली के तो केवल हाथ-पैर ही बंधे होते हैं।
हमारे तो आंख, कान, नाक, मुंह सब बंधे हैं।

राजेन्द्र उपाध्याय 

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