दीया जलाना...

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दीया जलाना...


दीया जलाना...

जाना, फिर जाना, उस तट पर भी 
जाकर दीया जला आना, पर पहले 
अपना यह आंगन कुछ कहता है।
उस उड़ते आंचल से गुड़हल की 
डाल बार-बार उलझ जाती हैं।
एक दीया वहां भी जलाना, जाना, 
फिर जाना, एक दीया वहां जहां 
नई-नई दूबों ने कल्ले फोड़े हैं।

एक दीया वहां जहां उस नन्हें गेंदे ने 
अभी-अभी पहली ही पंखड़ी बस 
खोली है, एक दीया उस लौकी के
नीचे, जिसकी हर लतर तुम्हें छूने 
को आकुल है।

एक दीया वहां जहां गगरी रक्खी है, 
एक दीया वहां जहां बर्तन मंजने से 
गड्ढा-सा दिखता है, एक दीया वहां 
जहां अभी-अभी धुले नये चावल 
का गंधभरा पानी फैला है।

एक दीया उस घर में, जहां 
नई फसलों की गंध छटपटाती हैं, 
एक दीया उस जंगले पर जिससे, 
दूर नदी की नाव अक्सर दिख जाती हैं।

एक दीया वहां जहां झबरा बंधता है, 
एक दीया वहां जहां पियरी दुहती है, 
एक दीया वहां जहां अपना प्यारा झबरा 
दिन-दिन भर सोता है, एक दीया उस 
पगडंडी पर जो अनजाने कुहरों के पार
डूब जाती है।

- केदारनाथ सिंह
(-संपादित)

मेरी बेटी...

मेरी बेटी उंगली छोड़ के
चलना सीख गई
संग-ए-मील पे हिंदिसों
ती पहचान से आगे
आते जाते रस्तों के हर नाम से
आगे पढ़ना सीख गई
जलती बुझती रौशनियों और
रंगो की तरतीब
सफर की सम्तों और
गाड़ी के पहियों में
उलझी राहों पर
आगे बढ़ना सीख गई
मेरी बेटी दुनिया के
नक्शे में अपनी मर्जी के
रंगों को भरना सीख गई।

(फातिमा हसन)

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