यह एक बहुत ही शानदार कविता है जिसमें कवि ने समाज में दहेज को लेकर हो रहे अत्याचारों को बहुत ही अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया है।
दहेज
पहला दृश्य
एक कवि नदी के किनारे खड़ा था।
तभी वहां से एक लड़की का शव
नदी में तैरता हुआ जा रहा था।
तो तभी कवि ने उस शव से पूछा...
कौन हो तुम ओ सुकुमारी, बह रही नदियां के जल में?
कोई तो होगा तेरा अपना, मानव निर्मित इस भू-तल में!
किस घर की तुम बेटी हो, किस क्यारी की कली हो तुम?
किसने तुमको छला है बोलो, क्यों दुनिया छोड़ चली हो तुम?
किसके नाम की मेंहदी बोलो, हांथो पर रची है तेरे?
बोलो किसके नाम की बिंदिया, मांथे पर लगी है तेरे?
लगती हो तुम राजकुमारी, या देव लोक से हो आई?
उपमा रहित ये रूप तुम्हारा, ये रूप कहां से हो लाई?
दूसरा दृश्य
कवि की बाते सुनकर, लड़की की आत्मा बोली...
कवी राज मुझ को क्षमा करो, गरीब पिता की हूं बेटी!
इसलिए मृत मीन की भांती, जल धारा पर हूं लेटी!
रूप रंग और सुन्दरता ही, मेरी बताते हैं पहचान!
कंगन, चूड़ी, बिंदी, मेंहदी सब मुझे बनाते हैं सुहागन!
पिता के सुख को सुख समझा, पित के दु:ख में दुखी थी मैं!
जीवन के इस तन्हा पथ पर, पति के संग चली थी मैं!
पति को मैंने दीपक समझा, उसकी लौ में जली थी मैं!
माता-पिता का साथ छोड़, उसके रंग में ढली थी मैं!
पर वो निकला सौदागर, लगा दिया मेरा भी मोल!
दौलत और दहेज की खातिर, पिला दिया जल में विष घोल!
दुनिया रुपी इस उपवन में, छोटी सी एक कली थी मैं!
जिस को माली समझा, उसी के द्वारा छली थी मैं!
इश्वर से अब न्याय मांगने, शव शैय्या पर पड़ी हूं मैं!
दहेज के लोभी इस संसार मैं, दहेज की भेंट चढ़ी हूं में!
दहेज की भेंट चढ़ी हूं मैं!!!
आपको हमारी यह पोस्ट कैसी लगी हमें कमेंट बॉक्स में जरूर बताएं और अच्छी लगे तो इसे शेयर भी करें
0 Comments
Thank you to visit our blog. But...
Please do not left any spam link in the comment box.