आज हम आपको एक छोटी सी कहानी के माध्यम से बातने जा रहे हैं कि ये आरक्षण क्या है? ये कहानी किसी ने हमारे को भेजी है। इसके द्वारा आपको समझ में आ जाएगा कि किस दुर्बलता को कहते हैं। आरक्षण की बीमारी आदमी को कमजोर से कमजोर बना देती है। जिससे वह कभी चाहकर भी इससे उभर नहीं पाता है। तो आइए जानते हैं यह कहानी क्या कहती है ...
एक समय की बात है रात का समय था एक आदमी को उसके घर वाले सरकारी अस्पताल ले कर के आए... शायद दो पक्षों के विवाद में उसको चोटें आई थीं...
जांच करने पर पता चला उसके पैर की हड्डी में फ्रैक्चर था...
मरीज को भर्ती किया गया और आगे का उपचार शुरू हुआ...
चूंकि फ्रैक्चर इतना गंभीर नहीं था तो कुछ दिनों बाद उसे छुट्टी दे दी गई और घर पर ही रहने की सलाह दी गई...
हालांकि, वो अभी भी बिना सहारे के चल पाने में असमर्थ था, तो डॉक्टरों ने उसके इस समस्या के हल के रूप में उसे बैसाखी दे दी... जो सरकारी अस्पताल में मुफ्त में मिलती थी और बैसाखी देते वक्त कहा गया कि...
"ये सरकार की तरफ से है... इसलिए इसकी उपलब्धता की संख्या और सीमा निर्धारित है... तो जब आप खुद चलने में समर्थ हो जाओ तो इस बैसाखी को लौटा देंना... ताकि ये भविष्य में आने वाले आप जैसे लोगों के भी काम आ सके...''
फिर उसको कुछ जरूरी दवाइयां लिखने के बाद छुट्टी दे दी गई...
दवाइयां लेने वो मरीज सरकारी दवाखाने पहुंचा तो वहां लम्बी कतार लगी थी... तो वो भी लाइन में लग गया...
लाइन में लगे बाकि लोगों ने जब उसके पैर में प्लास्टर बंधा और बैसाखी के सहारे खड़े देखा तो मानवता के नाते उसे आगे जाने दिया और उसे दवाइयां जल्दी ही मिल गई...
बाहर निकला... स्टेशन जाना था तो ऑटो पकड़ने पहुंचा... ऑटो रुका तो ऑटो वाले ने भी उसकी लाचारी को देखते हुए उसके सामान को उठा के रख दिया और उसको भी चढ़ने में मदद की और स्टेशन तक छोड़ा...
ट्रेन पकड़ने पहुंचा तो वहां भी बहुत भीड़ थी... और वहां भी लोगों की मदद से ट्रेन में चढ़ गया, लेकिन बैठने की जगह ना होने से खड़ा रहना पड़ा...
फिर लोगों ने देखा कि बेचारा बैसाखी के सहारे एक आदमी खड़ा है तो एक आदमी ने उठ कर उसे अपनी सीट दे दी और वो घर आराम से पहुंच गया...
रात बीती... मेडिकल लीव भी खत्म हो चुकी गई तो अब ऑफिस जाना था... सुबह तैयार हो के बाहर निकला और बस का इंतजार करने लगा...
पड़ोसी ने देखा कि बेचारा बैसाखी के सहारे चल रहा है तो उसे ऑफिस तक अपने स्कूटर पर छोड़ आए...
इतने दिन बाद ऑफिस पहुंचा था तो काम बहुत था... लेकिन ऑफिस कलीग्स (सहकर्मियों) ने भी उसके लाचारी पर सहानुभूति दिखाई और उसके ज्यादातर काम उन्होंने करके उसका हाथ बटाया... मतलब ऑफिस में भी आराम रहा आज तो...
घर लौटा तो साथ वाले कर्मचारी ने घर तक छोड़ दिया...
दिन बड़ा आराम से बीता उसका...
ना बस से आने जाने की किच किच हुई ना ही ऑफिस में काम के लिए कुछ कहा गया...
खाना खा के सोने गया तो नींद नहीं आ रही थी शायद दिमाग में कुछ चल रहा था...
...अगर मैं ठीक ना होने का नाटक करूं तो ऐसे ही लोगों की सहानुभूति मिलती रहेगी...
या फिर ये बैसाखी ही ना लौटाऊ (छोड़ू) तो ??
इसके साथ होता हूं तो सारे काम आसानी से हो जाते हैं...
और फिर ये बैसाखी अपने बच्चे को दे दूं तो..?
वो भी मेरी तरह फायदा उठा पाएगा...
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और फिर उसने अस्पताल में बैसाखी वापस नहीं की...
ऐसे ही कई मरीजों ने किया...
और कुछ दिनों में ही सरकारी बैसाखियां... जो लोगों के मदद के लिए थीं... खत्म हो गई और हर बैसाखी कुछ चंद लोगों की व्यक्तिगत (संपत्ति) बन चुकी थी... जिसे वो अपने बच्चों को थमाने का प्लान बना चुके थे...
और अब उसके जैसे दूसरे 'मजबूर' मरीज बैसाखियों के आस में बैठे हैं...
आखिर कब तक लोग उसके झूठ को सहते और अनदेखा करते? एक दिन विरोध तो होना ही था...
और उनकी देखा देखी अब तो हट्टे कट्टे लोग भी बैसाखी की डिमांड के लिए दंगे करने लगे हैं...
फिर आगे क्या हुआ वो हम सब देख और महसूस कर रहे हैं...
यह है आरक्षण रूपी दुर्लभ बीमारी, जो इससे पास है वो छोड़ना नहीं चाहते और जिनके पास नहीं है वो इसके लिए लालायित रहते हैं। जो कि आदमी को ऊपर उठने के बजाय कमजोर से और कमजोर बना देती है।
*आरक्षण*
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