आरजू...
नई सुबह चाहते हैं नई शाम
चाहते हैं, जो ये रोज ओ शब
बदल दे वो निज़ाम चाहते हैं।
वही शाह चाहते हैं जो गुलाम
चाहते हैं, कोई चाहता ही कब है
जो अवाम चाहते हैं।
किसे हर्फ़-ए-हक़ सुनाऊं कि
यहां तो उसको सुनना, न ख़वास
चाहते हैं न अवाम चाहते हैं।
ये नहीं कि तूने भेजा ही नहीं
पयाम कोई, मगर इक वही न
आया जो पयाम चाहते हैं।
तिरी राह देखती हैं मिरी तिश्ना-
काम आंखें, तिरे जल्वे मेरे घर
के दर-ओ-बाम चाहते हैं।
वो किताब-ए-ज़िंदगी ही न हुई
मुरत्तब अब तक, कि हम इंतिसाब
जिस का तिरे नाम चाहते हैं।
न मुराद होगी पूरी कभी उन
शिकारियों की, मुझे देखना जो
ज़ाहिद तह-ए-दाम चाहते हैं।
(रेख़्ता से) - अबुल मुजाहिद ज़ाहिद
आगे बढ़े चलेंगे
यदि रक्त बूंद भर भी होगा कहीं बदन में,
नस एक भी फड़कती होगी समस्त तन में।
यदि एक भी रहेगी बाकी तरंग मन में।
हर एक सांस पर हम आग बढ़े चलेंगे।
वह लक्ष्य सामने है पीछे नहीं टलेंगे।
मंजिल बहुत बड़ी है पर शाम ढल रही हैं।
सरिता मुसीबतों की आग उबल रही है।
तूफान उठ रहा है, प्रलयाग्नि जल रही है।
हम प्राण होम देंगे, हंसेत हुए जलेंगे।
पीछे नहीं टलेंगे, आगे बढ़े चलेंगे।
अचरज नहीं कि साथ भग जाएं छोड़ भय में।
घबराएं क्यो, खड़ें हैं भगवान जो हृदय में।
धुन ध्यान में धंसी है, विश्वास है विजय में।
बस और चाहिए क्या, दम एकदम न लेंगे।
जब तक पहुंच न लेंगे, आगे बढ़े चलेंगे।
-राम नरेश त्रिपाठी
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