मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
दीप जिस का महल्लात ही में जले
चंद लोगों की खुशियों को ले कर चले
वो जो साए में हर मस्लहत के पले
एेसे दस्तूर को सुबह-ए-बे-नूर को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
मैं भी खाइफ नहीं तख्ता-ए-दार से
मैं भी मंसूर हूं कह दो अग्यार से
क्यूं डराते हो जिंदा की दीवार सो
जुल्म की बात को जहल की रात को
मैं नहीं मानता मैं नहीं मानता
फूल शाखों पे खिलने लगे तुम कहो
जाम रिंदों को मिलने लगे तुम कहो
चाक सिनों के सिलने लगे तुम कहो
इस खुले झूट को जेहन की लूट को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
तुम ने लूटा है सदियों हमारा सुकूं
अब न हम पर चलेगा तुम्हारा फुसूं
चारागर दर्दमंदों के बनते हो क्यूं
तुम नहीं चारागर कोई माने मगर
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
@हबीब जालिम
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