धीरे धीरे बोल बुलबुल गीत सुनाने आई

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धीरे धीरे बोल बुलबुल गीत सुनाने आई



यह गीत कवियित्रि लता हया द्वारा 1993 में लिखा गया था। इस गीत को उन्होंने बेरोजगारी, रिश्वतखोरी, दहेजप्रथा, अत्याचार, दुराचार, धर्म के नाम पर ढोंग, पुलिस द्वारा आम जनता की सुनवाई नहीं करने, कोर्ट में भी इंसाफ नहीं मिलने और पैसा नहीं होने पर समाज की सेवा करने से भी वंचित रहने और भी कई प्रकार की सामाजिक कुरीतियों को ध्यान में रख कर लिख गया था, जो आज के समय में भी सटीक बैठता है।


चुप धीरे धीरे बोल, बुलबुल गीत सुनाने आई
चुप धीरे-धीरे बोल बुलबुल गीत सुनाने आई
कुछ गीत प्यार के कुछ बहार के कुछ सिंगार के लाई

चुप धीरे धीरे बोल, बुलबुल गीत सुनाने आई
एक रोज गई जब गुलशन, जाने कैसी थी उलझन
उखड़ा उखड़ा सा था मन, भीगा था मेरा दामन
तब राज ये गुल ने खोला, हर पत्ता पत्ता बोला
तितली का मन भी डोला, भंवरा सर चढ़ कर बोला
कुछ मन की आंखें खोल पगली, प्रेम कली मुस्काई

चुप धीरे धीरे बोल, बुलबुल गीत सुनाने आई
एक रोज मैं पूजा करने, भक्ति की गागर भरने
मंदिर जो लगी उतरने, वहां देखे खून के झरने
मंदिर मस्जिद का पंगा, मजहब को कर गया नंगा
हैरान खड़ी थी गंगा, और पल में हो गया दंगा
फिर राम नाम सत् बोल, मैं वापस जंगल को आई

चुप धीरे धीरे बोल, बुलबुल गीत सुनाने आई
एक रोज गई जब थाने, जुल्मों की रपट लिखाने
कोई माने या न माने, मैं जानूं या रब जाने
इलजाम लगा कर झूठा, वर्दी वालों ने कूटा
फिर जिसने चाहा लूटा, विश्वास का भांडा फूटा
कुछ बोल जुबां ना खोल, इस जा कुआं उस जा खाई

चुप धीरे धीरे बोल, बुलबुल गीत सुनाने आई
एक रोज मैं दफ्तर दफ्तर, भटकी डिग्री को लेकर
जूते फाड़े दर्जन भर, नहीं मिली नौकरी क्यूंकर
यहां काबिल शोक मनाएं, न अहल नौकरी पाएं
अब हंसा दाना खाएं, कौए मोती चुग जाएं
फिर लिए हाथ कशकोल, बोलो जय जय रिश्वत माई

चुप धीरे धीरे बोल, बुलबुल गीत सुनाने आई
एक रोज कचहरी आई, पेशी की थी सुनवाई
पर आके बड़ी पछताई, मैं फँस गई राम दुहाई
इन्साफ वही पाता है, कुर्सी जिनकी माता है
चलता जिनका खाता है, या गुंडा बन जाता है
सब गोलमाल है गोल, जब कातिल हो मुंसिफ, भाई

चुप धीरे धीरे बोल, बुलबुल गीत सुनाने आई
एक रोज मेरे घरवाले, बिन देखे और बिन भाले
ले आए लड़के वाले, कुछ अकड़े कुछ नखराले
लड़का हो काना या काला, लड़की पर चाहे आला
मांगे रुपयों की माला, उफ क्या गड़बड़ घोटाला
यहां रिश्तों का भी मोल, इस बाजार में है महंगाई

चुप धीरे धीरे बोल, बुलबुल गीत सुनाने आई
एक रोज मैं नेता बनने, हां चली इलेक्शन लड़ने
हर जुल्म-ओ-सितम से अड़ने, जनता की सेवा करने
पर मुझ मैं कमी थी थोड़ी, कोई पैसा पास न कौड़ी
कोइ खून किया नहीं चोरी, कोई टिकट नहीं था सॉरी
है नेताओं का कौल, कुर्सी अपनी कौम पराई

चुप धीरे धीरे बोल, बुलबुल गीत सुनाने आई
क्या और तुम्हे बतलाऊं, बेहतर है अब उड़ जाऊं
पैगाम यही दे जाऊं, और चीख चीख कर गाऊं
हम गीत प्रेम के गाएं, हर मजहब को अपनाएं
जुल्मों से मिल टकराएं, इंसान नेक बन जाएं
ये जीवन है अनमोल, क्या हिन्दू क्या सिख ईसाई


Lata Haya


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