कुछ हकिकत, कुछ सपना

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कुछ हकिकत, कुछ सपना



सपने में अपनी मौत को करीब से देखा,
कफन में लपटे तन जलते अपने शरीर कोे देखा,

खड़े थे लोग हाथ बांधे एक कतार में,
कुछ परेशान थे, कुछ थे उदास,

पर कुछ छुपा रहे थे अपनी मुस्कान,
दूर खड़ा देख रहा था मैं ये मंजर सारा,

तभी किसी ने हाथ बढ़ा कर थाम लिया हाथ मेरा,
और जब देखा चेहरा उसका तो मैं था बड़ा हैरान,

हाथ थामने वाला कुोई और नहीं था मेरा भगवान,
चेहरे पर मुस्कान और था नंगे पांव,

जब मैंने देखा उसकी तरफ जिज्ञासा भरी नजरों से,
तो हंस कर बोले,
तूने हर दिन दो घड़ी जपा था मेरा नाम,
आज प्यारे उसका कर्ज चुकाने आया हूं,

रो दिया मैं अपनी बेवकूफियों पर तब ये सोच कर,

जिसको दो घड़ी जपा वो आये थे बचाने,
और जिन में हर घड़ी रमा रहा वो आये हैं श्मशान पहुंचाने,

तभी खुली आंख मेरी तो मैं था बिस्तर पर विराजमान,
कितना था नादान मैं हकीकत से अनजान।

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